
भोंपूराम खबरी। जगदीप धनखड़ द्वारा अचानक इस्तीफा देने से उपराष्ट्रपति का पद खाली हो गया है जिसे सरकार जल्द से जल्द भरना चाहेगी। नया उपराष्ट्रपति कौन बनेगा इसे लेकर राजनीतिक हलकों में चर्चाएं तेज हो गई हैं। संभावित उम्मीदवारों में एक नाम जो प्रमुखता से उभर रहा है, वह है अरिफ मोहम्मद खान का जो फिलवक्त बिहार के राज्यपाल हैं। सवाल ये उठता है कि भाजपा के राजनीतिक समीकरण, उम्र सीमा नीति और उनके व्यापक अनुभव को देखते हुए क्या वे उपराष्ट्रपति पद के लिए एक मजबूत दावेदार बन सकते है।

अरिफ मोहम्मद खान का जन्म 18 नवंबर 1951 को हुआ था सो वर्तमान में वह 73 वर्ष के हैं। उपराष्ट्रपति पद के लिए संविधान के अनुसार अधिकतम उम्र की कोई सीमा नहीं है इसलिए उम्र के लिहाज से वे पूरी तरह पात्र हैं। लेकिन दिक्कत भाजपा की 75 वर्ष की नीति को लेकर है। भाजपा ने एक अनौपचारिक नीति बना रखी है कि किसी को भी 75 वर्ष की उम्र के बाद सक्रिय राजनीतिक पद नहीं दिया जाएगा। इसी नीति के चलते भाजपा के वरिष्ठ नेता लाल कृष्णा आडवाणी और मुरली मनोहर जोशी जैसे कई नेताओं को किनारे बैठा दिया गया था। संघ प्रमुख भी हाल ही में कह चुके हैं कि 75 साल की उम्र के बाद व्यक्ति को खुद ही किनारा कर लेना चाहिए।
एक बात ये भी दीगर है कि भले ही भाजपा ने 75 साल की सीमा बना दी है लेकिन कुछ अपवाद भी देखने को मिले हैं। इनमें नजमा हेपतुल्ला और आनंदीबेन पटेल प्रमुख हैं जिन्होंने 75 वर्ष से ज्यादा उम्र में भी संवैधानिक पदों पर कार्य किया है। अरिफ मोहम्मद खान अभी 73 वर्ष के हैं और अगर उपराष्ट्रपति बने तो वे अपने कार्यकाल के बीच में 75 वर्ष के होंगे। अभी तो वे भाजपा की नीति के दायरे से बाहर ही हैं, जब 75 के होंगे तब देखा जाएगा।
आरिफ पर भरोसा
आरिफ मोहम्मद खान लंबे समय से राजनीति में सक्रिय रहे हैं और विभिन्न सरकारों में मंत्री भी रह चुके हैं। हाल ही में उन्हें बिहार का राज्यपाल नियुक्त किया गया, इससे पहले वे केरल के राज्यपाल थे। इन नियुक्तियों से साफ़ है कि भाजपा नेतृत्व उनके अनुभव और नजरिये को महत्व देता है।
उपराष्ट्रपति के लिए अगर भाजपा आरिफ को चुनती है तो इसके पीछे कई फैक्टर काम करेंगे। सबसे बड़ी बात ये कि वह एक मुस्लिम नेता हैं और उनका चयन भाजपा की छवि को बैलेंस कर सकता है। इसके अलावा आरिफ मोहम्मद खान अनुभवी भी हैं, उदार छवि वाले और प्रगतिशील भी हैं सो ऐसे में भाजपा समावेशिता और उदारता का संदेश भी देना चाहेगी। आरिफ मोहम्मद खान ने 1986 में शाह बानो केस पर कांग्रेस की मुस्लिम
तुष्टिकरण नीति का विरोध करके अपनी नीतिगत ईमानदारी दिखाई थी। इसके अलावा भाजपा और संघ के करीब होने के बावजूद, वे स्वतंत्र सोच रखने वाले नेता माने जाते हैं। आरिफ जैसे चेहरे से भाजपा अंतर्राष्ट्रीय मंचों पर भी अपनी मुस्लिम विरोधी छवि को संतुलित कर सकती है।