भोंपूराम खबरी। प्राकृतिक आपदा को रोका नहीं जा सकता है, लेकिन इसके प्रबंधन और न्यूनीकरण के प्रयास से जानमाल की क्षति पर अंकुश लगाया जा सकता है। इसके लिए आपदा प्रबंधन से जुड़ी सभी मशीनरी का गोल (लक्ष्य) और रोल (भूमिका) स्पष्ट होना चाहिए।
यह बात आपदा प्रबंधन सचिव वीके सुमन ने हिमालयन सोसाइटी आफ जियोसाइंटिस्ट और आपदा प्रबंधन विभाग के अंतर्गत संचालित उत्तराखंड भूस्खलन न्यूनीकरण एवं प्रबंधन केंद्र (यूएलएमएमसी) के संयुक्त तत्वावधान में आयोजित राष्ट्रीय सेमिनार में कही। इस दौरान उत्तराखंड में खतरनाक स्तर पर पहुंची ग्लेशियर झीलों का मुद्दा भी उठाया गया और इनकी निरंतर निगरानी पर बल दिया गया।
बुधवार को सर्वे चौक पर्वतीय क्षेत्रों में जोखिम मूल्यांकन और चुनौतियां विषय पर आयोजित सेमिनार का उद्घाटन सचिव आपदा प्रबंधन एवं पुनर्वास विनोद कुमार सुमन ने किया। कार्यक्रम को संबोधित करते हुए सचिव वीके सुमन ने कहा कि आपदाओं के लिहाज से उत्तराखंड समेत अन्य हिमालयी राज्य बेहद संवेदनशील हैं। यहां की संवेदनशीलता को ध्यान में रखते हुए कार्य करने की आवश्यकता है।
उन्होंने कहा कि आपदा के तीन चरण होते हैं, जिसमें सबसे महत्वपूर्ण चरण आपदा पूर्व तैयारी का है। आपदाओं का सामना करने के लिए हमारी जितनी अच्छी तैयारी होगी, प्रभाव उतना ही कम होगा। चाहे मानव संसाधनों की क्षमता विकास करना हो, चाहे खोज एवं बचाव से संबंधित आधुनिक उपकरण क्रय करने हों, अर्ली वार्निंग सिस्टम पर काम करना हो, यह सबसे उपयुक्त समय है।
साथ ही कहा कि आपदाओं का सामना करने के लिए गोल और रोल दोनों स्पष्ट होने जरूरी हैं। भारत सरकार ने आईआरएस सिस्टम बनाया है, जिसे अपनाकर यह दोनों लक्ष्य हासिल किए जा सकते हैं। उत्तराखण्ड में विभिन्न आपदाओं से लड़ने में रिस्पांस टाइम कम हुआ है। हम पिछले दस साल की आपदाओं का अध्ययन कर रहे हैं, जिससे यह पता चल सके कि हमने कहां बेहतर किया और कहां कमियां रहीं, ताकि भविष्य में आपदाओं से लड़ने के लिए और बेहतर प्लानिंग की जा सके।
वहीं, यूएसडीएमए के अपर मुख्य कार्यकारी अधिकारी-क्रियान्वयन डीआइजी राजकुमार नेगी ने कहा कि आपदा प्रबंधन सिर्फ एक विभाग का कार्य नहीं है। अलग-अलग विभाग एक साथ, एक मंच पर आकर एक लक्ष्य की पूर्ति के लिए कार्य करते हैं और वह लक्ष्य है जन-धन की हानि को कम से कम करना।
हिमालयन सोसाइटी आफ जियोसाइंटिस्ट के अध्यक्ष तथा पूर्व महानिदेशक जीएसआइ आरएस गरखाल ने कहा कि हाल के वर्षों में हिमालयी क्षेत्र सबसे अधिक प्राकृतिक आपदाओं से प्रभावित हुआ है। इस सम्मलेन का उद्देश्य विभिन्न चुनौतियों के प्रति अपनी समझ को बढ़ाना और जोखिमों को प्रभावी रूप से कम करने के लिए रणनीति विकसित करना है।
इसी के अनुरूप यूएलएमएमसी के निदेशक शांतनु सरकार ने कहा कि विभिन्न केंद्रीय संस्थानों के साथ मिलकर आपदा सुरक्षित उत्तराखंड के निर्माण की दिशा में कार्य किया जा रहा है। प्रमुख पर्वतीय शहरों का संपूर्ण जियो टेक्निकल, जियो फिजिकल तथा जियोलॉजिकल अध्ययन की दिशा में सरकार आगे बढ़ रही है। लिडार सर्वे भी किया जा रहा है, जो भी डाटा मिलेगा उसे रेखीय विभागों के साथ साझा कर उसके अनुरूप कार्य किए जाएंगे।
यूएलएमएमसी के निदेशक शांतनु सरकार ने कहा कि उत्तराखंड में 13 ग्लेशियल झीलें चिह्नित की गई हैं, जिनमें से पांच अत्यंत जोखिम वाली हैं। उनका भी अध्ययन किया जा रहा है ताकि भविष्य में उनसे होने वाले संभावित जोखिम को कम किया जा सके। इस दिशा में सेटेलाइट आंकड़ों का भी विश्लेषण जारी है।
देहरादून: कार्यक्रम में देशभर में विभिन्न बांधों के निर्माण में सराहनीय योगदान के लिए सुभाष चंद्र गुप्ता को लाइफ टाइम अचीवमेंट अवार्ड, मुंबई-पुणे एक्सप्रेस हाइवे पर महज तीन साल में नौ किमी लंबी टनल बनाने वाली एजेंसी के प्रतिनिधि सुरेश कुमार को बेस्ट टनलिंग अवार्ड तथा एसके गोयल को बेस्ट माइक्रोपाइलिंग अवार्ड से सम्मानित किया गया।
सेमिनार की यह भी अहम बातें
सेमिनार के संयोजक बीडी पाटनी ने लैंडस्लाइड डैम और ग्लेशियर झीलों को नया खतरा बताते हुए निगरानी और प्रबंधन की दिशा में सक्रियता बढ़ाने के सुझाव दिए।
सीबीआरआइ के मुख्य वैज्ञानिक डा डीपी कानूनगो ने बल दिया कि वैज्ञानिक समुदाय को यदि कहीं कोई आपदा का खतरा महसूस होता है तो उन्हें बिना किसी भय के मजबूती के साथ अपनी बात को शासन-प्रशासन के सम्मुख रखना चाहिए।
गोदावरी रिवर मैनेजमेंट बोर्ड के पूर्व चेयरमैन एचके साहू तथा राघवेंद्र कुमार गुप्ता ने बांधों की सुरक्षा पर व्याख्यान दिया। उन्होंने डैम सेफ्टी एक्ट के विभिन्न प्राविधानों के बारे में जानकारी दी।
आइआइटी रुड़की के विज्ञानी डा एसपी प्रधान ने हिमालयी राज्यों में स्लोप कटिंग के विभिन्न पहलुओं तथा उनके उपचार पर प्रकाश डाला।