
भोंपूराम खबरी,देहरादून। राजधानी के रियल एस्टेट सेक्टर को सनसनी में डाल देने वाले बिल्डर सतेंद्र उर्फ बाबा साहनी आत्महत्या मामले में पुलिस ने करीब 18 महीने बाद फाइनल रिपोर्ट (एफआर) लगा दी है। हैरानी की बात यह है कि बिल्डर ने अपने सुसाइड नोट में जिन लोगों के नाम दर्ज किए थे, पुलिस उन्हें अपराध से जोड़ने के लिए “कोई ठोस साक्ष्य” पेश नहीं कर सकी। इसी आधार पर अजय गुप्ता और उनके बहनोई अनिल गुप्ता को क्लीनचिट दे दी गई है।

24 मई 2024 को सतेंद्र साहनी ने सहस्रधारा रोड स्थित पैसेफिक गोल्फ एस्टेट की आठवीं मंजिल से छलांग लगाकर जान दे दी थी। उनकी जेब से मिला सुसाइड नोट शुरू से ही जांच का केंद्र था। नोट में अजय और अनिल गुप्ता का स्पष्ट उल्लेख था, जिसके आधार पर दोनों को गिरफ्तार कर जेल भेजा गया था। लेकिन लंबी जांच के बाद पुलिस ने फाइल बंद करते हुए कहा—“दोष सिद्ध करने जैसा कोई प्रमाण नहीं मिला।”
सतेंद्र साहनी देहरादून के प्रतिष्ठित बिल्डर थे और दो बड़े आवासीय प्रोजेक्ट—सहस्रधारा रोड और राजपुर रोड पर अम्मा कैफे के पास—का निर्माण कर रहे थे। इन दोनों प्रोजेक्ट्स का कुल मूल्य लगभग 1500 करोड़ रुपये था।
हालाँकि, इतने बड़े निवेश में साहनी की निजी हिस्सेदारी सिर्फ 3% थी। उनके पार्टनर संजय गर्ग के साथ मिलकर कुल 40% हिस्सेदारी थी, जिसे पूरा करने के लिए उन्होंने एक बड़े फाइनेंसर की तलाश की।
यहीं से गुप्ता बंधु की एंट्री हुई।
कैसे बढ़ा विवाद?
अनिल गुप्ता को साइलेंट पार्टनर के रूप में जोड़ा गया था।
सहमति थी कि वे फंड मुहैया कराएँगे, लेकिन प्रोजेक्ट में दखल नहीं देंगे।
परंतु कुछ ही समय में अजय गुप्ता प्रोजेक्ट साइटों पर सक्रिय होने लगे।
उनके प्रतिनिधि के तौर पर आदित्य कपूर को नियुक्त कर दिया गया।
जमीन मालिकों को जब यह जानकारी लगी, तो उन्होंने पीछे हटना शुरू कर दिया।
नतीजा—सतेंद्र साहनी पर वित्तीय और मानसिक दबाव बढ़ता गया। चर्चा यह भी रही कि गुप्ता बंधु ने प्रोजेक्ट में 40 करोड़ (कथित तौर पर) निवेश किया था, जिसका दबाव साहनी पर लगातार डाला जा रहा था।
सुसाइड नोट में नाम, विवाद दर्ज… फिर भी सबूत नहीं?
सतेंद्र साहनी ने अपनी आखिरी लिखावट में दो नाम दर्ज किए—
अजय गुप्ता और अनिल गुप्ता।
परिवार ने भी बयान में इन दोनों पर गंभीर आरोप लगाए।
इसके बावजूद, 18 महीनों की जांच के बाद पुलिस इस निष्कर्ष पर पहुंची कि—
“कोई ऐसा प्रमाण नहीं जो आरोप साबित कर सके।”
क्या पुलिस ने इन बिंदुओं की गहन जांच की?
क्या वित्तीय लेन-देन की फॉरेंसिक ऑडिट हुई?
क्या कॉल रिकॉर्ड, चैट, ईमेल, बैठकों के सबूत खंगाले गए?
क्या दबाव से जुड़ा साइकोलॉजिकल एंगल जाँच में शामिल हुआ?
इन सवालों का जवाब रिपोर्ट में नहीं मिलता।
तेज शुरुआत, धीमी होती जांच… और अचानक एफआर
मामले की शुरुआत में पुलिस की कार्रवाई आक्रामक थी।
गुप्ता बंधु चर्चा में थे, गिरफ्तारी भी हुई, लेकिन:
समय बीतने के साथ धाराएँ कमजोर पड़ीं
जांच की स्पीड कम होती गई
और अंत में मामला फाइनल रिपोर्ट में दफ्न हो गया
अब बड़ा सवाल—
क्या सुसाइड नोट अदालत तक अपनी आवाज़ पहुँचा भी पाता, या इससे पहले ही खामोश कर दिया गया?
सतेंद्र साहनी – 3% हिस्सेदारी, 1500 करोड़ का प्रोजेक्ट, और अंत में अकेला संघर्ष
यह घटना सिर्फ एक आत्महत्या नहीं, बल्कि रियल एस्टेट सेक्टर की उस कड़वी सच्चाई को उजागर करती है, जहाँ:
साझेदारी हमेशा लाभ का सौदा नहीं होती
बड़े फाइनेंसर अक्सर नियंत्रण हासिल करने लगते हैं
और भारी आर्थिक दबाव कभी-कभी जानलेवा साबित हो सकता है
18 महीने बाद भले ही पुलिस ने केस बंद कर दिया हो, लेकिन सवाल अभी भी जीवित हैं:
क्या सतेंद्र साहनी एक पार्टनर थे, या किसी बड़े खेल के शिकार?


