भोंपूराम खबरी,रुद्रपुर। उत्तराखंड में प्राथमिक स्तर के पाठ्यक्रम में कुमाऊनी व गढ़वाली भाषा लागू होने पर उत्तराखंड की लोक संस्कृति बचेगी। यह बात धर्मेन्द्र सिंह बसेड़ा शिक्षक, राजकीय इंटर कॉलेज बरहैनी बाजपुर ने कही। उन्होंने कहा कि उत्तराखंड राज्य की लोक संस्कृति को जीवित रखने व संरक्षित करने के लिए कुमाऊनी व गढ़वाली भाषा को प्राइमरी स्कूलों के पाठ्यक्रम में शामिल किया जाना और वही गढ़वाली – कुमाऊनी व जौनसारी बोलियों के संरक्षण के लिए विधायकों की समिति बनाई जाना, एक श्रेष्ठ कदम है। क्योंकि किसी भी लोक संस्कृति को जीवित रखने के लिए वहां की भाषा, लोक बोलियों को बचाना जरूरी होता है। भाषा या बोलियां विचारों के आदान प्रदान का साधन है कोई भी व्यक्ति अपने विचारों को अपनी मातृभाषा में ही श्रेष्ठ तरीके से रख सकता है लोक बोलियो में ही वहां की संस्कृति की आत्मा बसती है और बोलियां, भाषा, परंपरा आदि यहां की शक्ति हैं। उन्होंने बताया कि मातृभाषा के आंकड़ों के अनुसार उत्तराखंड के 13 जिलों में से 10 जिलों में गढ़वाली व कुमाऊनी भाषा की बहूलता है। जनगणना आयुक्त कार्यालय के आंकड़ों के अनुसार पौड़ी, टिहरी, चमोली, उत्तरकाशी व रुद्रप्रयाग में गढ़वाली और अल्मोड़ा, नैनीताल, पिथौरागढ़, बागेश्वर व चंपावत में कुमाऊनी मातृभाषा बोलने वालों की बहूलता है, शेष तीन जिलों उधम सिंह नगर ,हरिद्वार ,देहरादून में हिंदीभाषी लोगों की संख्या ज्यादा है। खास बात यह है कि इन तीनों जिलों में हिंदीभाषी लोगों की संख्या, अन्य जिलों में कुमाऊनी गढ़वाली समेत विभिन्न भाषा बोलने वालों की संख्या से अधिक है। देखा जाए तो प्रदेश में हिंदीभाषी लोगों की संख्या अधिक है, जबकि कुमाऊनी – गढ़वाली का प्रसार सबसे अधिक है वही सबसे अधिक प्रसार वाली भाषा गढ़वाली व कुमाऊनी बोलने वालों की संख्या उधम सिंह नगर, हरिद्वार जिले चौथे स्थान पर हैं। कहा कि कुमाऊनी गढ़वाली भाषा धीरे-धीरे लुप्त होने के कगार पर है इसके मुख्य कारण पलायन, शहरीकरण, लिपिबद्ध ना होना आदि है नगरी क्षेत्रों में बहुत कम लोग कुमाऊनी या गढ़वाली भाषा बोलते हैं। माता पिता कुमाऊनी या गढ़वाली जानते भी हैं तो उनके बच्चे इन भाषाओं को नहीं जानते हैं कुछ इन भाषाओं को समझ सकते हैं पर बोल नहीं सकते ।अपनी मातृभाषा में संवाद करने पर भी इनके बच्चे हिंदी में ही उत्तर देते हैं।
अब जबकि कुमाऊनी वह गढ़वाली भाषा का पाठ्यक्रम प्रदेश के प्राइमरी स्कूलों में लागू किया जा रहा है। यह इन भाषाओं को बोलने वालों के लिए सुखद कदम तो है ही, साथ में आगे चलकर हर स्तर पर इन भाषाओं की शिक्षा, प्रदेश के विद्यालयों में दिए जाने के संकेत हैं जिससे ये भाषाएं तो संरक्षित होंगी ही ,साथ ही यहां के लोक संस्कृति भी विलुप्त होने से बचेगी।